Thursday , 27 March 2025
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न कोई गारंटी, न कोई वारंटी

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आगरालीक्स..(व्यंग्य)….
आज कल बाज़ार का ज़माना है। और वह भी कोई लोकल या देशी नहीं, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के तामझाम वाला बाजारू ज़माना। चीन, जापान, अमेरिका, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, रूस और कोरिया के खुले बाज़ार वाला ज़माना। इस अलबेले युगांतकारी बाज़ार की खासियत यह है कि यह हाट, मंडी, दूकानों, मेलों, नुमाइशों और शौपिंग माल्स के ज़रिये नहीं, हर हाल में बेचो वाले बाज़ार के लोक-लुभावन नियमों से चलता है। आप सामान खारीदने जायें या न जायें, चमकता हुआ बाज़ार खुद ब खुद आप के पास चल कर आ जाता है।
आप एक कंपनी को बुलाइए, सैकड़ों कंपनिया आकर आपको घेर लेती हैं। आप एक चीज़ पर उंगली रखिये, आपके सामने हजारों सामानों का अम्बार लग जाता है। और यह देखिये, यह लीजिये के चकाचौंधी शोर में फंस कर आप ठीक उसी तरह से मतिभ्रम हो जाते हैं, जैसे कि मुम्बई, कोलकता, चेन्नई या किसी तीर्थ स्थान के स्टेशन पर उतरते ही टैक्सी या ऑटो वालों से घिरने के बाद सवारियां हो जाती हैं। इस बाज़ार की एक और खासियत है। आपको चीज़ों की ज़रुरत हो न हो, यह अपने धुआंधार और लगातार विज्ञापनों से आपके अन्दर उन सभी चीज़ों की इतनी उत्कट अभिलाषा पैदा कर देता है कि उनके बगैर आपको अपनी ज़िंदगी सूनी, नीरस और बदरंग लगने लगती है।
ये जो टीवी, अखबार, पोस्टर, होर्डिंग, डिजिटल डिस्प्ले, सिनेमा, इंटरनेट, हीरो, हीरोइन, खिलाड़ी-एथेलीट्स और तमाम तरह के सेलिब्रेटीज़ लोग हैं, ये सब इस बाज़ार के बहुआयामी माध्यम हैं। यह अपनी चमक-दमक से आपके दिलो-दिमाग में नित नयी-नयी चीज़ों की ख्वाहिशें भरते रहते हैं। नए-नए मोबाईल्स, कैमरे, टीवी, फ्रिज, गजेट्स, ड्रेस, ज्वेलरी, कारें और सुन्दर-सुन्दर रोमांटिक जगहों की यात्रायें। एक से एक ललचाऊ पैकेजेज। एक के साथ एक फ्री आदि का सुनहरा ऑफर। ऑन लाइन शौपिंग, कैश ऑन डिलीवरी की सुविधा। मजे आज लो, भुगतान बाद में सुविधानुसार धीरे-धीरे किश्तों में करो। आप चाहें या न चाहें चीज़ों की चाहत आपके अन्दर पैदा हो ही जाती है। क्योंकि यह सतरंगा बाज़ार सिर्फ आपको सपने ही नहीं दिखाता, उस सपने को पूरा करने के लिए आपको सम्मोहित करके उठाता, कोंचता और प्रेरित भी करता है।
आपकी औकात सिर्फ हाँथ से मुंह तक वाली ही क्यों न हो, आपके जेब में पैसे हों या न हों, यह छड़ी घुमाते ही आपके लिए उसका भी बंदोबस्त कर देता है। इसके लिए आपको किसी बैंक या जगह-जगह दूकान खोल कर बैठी देसी-विदेशी तमाम साहूकारी संस्थाओं के पास जाने की भी ज़रुरत नहीं है। वे खुद चल कर आपके पास चली आती हैं। अब तो बैंक ही नहीं, क़र्ज़ भी आपके दरवाज़े पर हाज़िर हो जाता है। और आप अपने अन्दर जबरन जगाये गए सपनों के इंद्रजाली सम्मोहन में डूब कर इसके डाले हुए दाने को चुगने के चक्कर में इसके सुनहले जाल में आसानी से फंस जाते हैं। और फिर तो ज़िंदगी भर ऊभ-चूभ करते हुए कभी डूबते हैं, कभी उतराते हैं।
अगर फंसी-फ़ंसान का यह खेल सिर्फ चीज़ों तक ही सीमित रहता तो ठीक था। हम और आप सिर्फ कंज्यूमर ही होकर रह जाते, तो कोई बात नहीं थी। लेकिन इस बाज़ार ने तो आज ज़िंदगी के हर पहलू को अपनी चपेट में ले लिया है।
जी हाँ, हर पहलू को। इस बाज़ार में बिकता वही है, जिसका बाज़ार गर्म होता है। और बाज़ार उसी का गर्म होता है, जो विज्ञापनों के युद्ध में येन-केन-प्रकारेण अपने प्रतिद्वंदियों पर फतह हासिल कर लेता है। यहाँ क्वालिटी नहीं, पैकेजिंग जीतती है। चीज़ों के बाज़ार में जिस प्रकार एक के साथ एक फ्री या आसान क़र्ज़ मिल जाने वाला फार्मूला अंततः एक ऐसा ट्रैप होता है, जो लोगों को बाद में कष्ट से मर-मर कर जीने के लिए मज़बूर कर देता है।
उसी प्रकार ज़िंदगी के अन्य पहलुओं में भी विज्ञापनों के शोर में फंस जाने से लोगों का जीवन भी अंततः कंटकाकीर्ण बन जाता है। चाहे वह शिक्षा और स्वास्थ्य का मसला हो या फिर प्यार-मोहब्बत, शादी-ब्याह, आल-औलाद, रिश्ते-नाते और राजनीति का मसला हो। और बाज़ार आधारित इस रंगारंग राजनीति में आम गारंटी-वारंटी की तो छोड़िये, सटिस्फैक्शन की भी कोई गारंटी नहीं होती। अगर माल चोखा की जगह माल धोखा निकल गया, तो रिफंड या रीकॉल का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।

 अरविन्द कुमार
ई-मेल-tkarvind@yahoo.com

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