आगरालीक्स…. मेरी दृष्टि यह है कि मनुष्य को समाधि का ध्यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी इतिहास में, तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में पहली बार यह स्मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है। और जिन्होने सोचा, जिन्होने मेडिटेट किया, जिन लोगो ने काम के संबंध पर और मैथुन पर चिन्तन किया और ध्यान किया, उन्हें यह दिखाई पड़ा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में, संभोग के क्षण में, मन विचारो से शून्य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना वह मन का ठहर जाना ही आन्नद वर्षा का कारण होता है। तब उन्हे सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को, विचारों से मुक्त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आंनद मिल सकता है। और तब समाधि और मेडिटेशन और प्रेयर, इनकी सारी व्यवस्थाए विकसित हुईं। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। और फिर मनुष्य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाए भी चित शून्य हो सकता है। और जो रस की अनुभूति संभोग में हुई थी, वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है, क्योकि शक्ति और उर्जा का वह निकास और बहाव है। लेकिन ध्यान सतत हो सकता है। तो में आपसे कहना चाहता हूँ कि एक युगल संभोग के क्षण को जिस आनंद के साथ अनुभव करता है, एक योगी चौबीस घंटे उस आंनद को अनुभव कर लेता है। लेकिन इन दोनो आंनद में बुनियादी विरोध नही है। और इसलिए जिन्होने कहा कि विषयानंद भाई-भाई है, उन्होने जरूर सत्य कहा है। वे सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। उन्होने निष्चित ही सत्य कहा है। लेकिन शायद आकर्षण कोई दूसरा है। और वह आकर्षण बहुत रिलीजस, बहुत धार्मिक अर्थरखता है। वह आकर्षण यह है कि मनुष्य के जीवन में सिवाय सेक्स की अनुभूति के वह कभी भी अपने गहरे नही उतरता है। दुकान करता है, धंधा करता है, यश कमाता है, पैसे कमाता है, लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे से गहरे ले जाता है और उसको गहराई में दो घटनाए घटती है। एक-संभोग के अनुभव में अंहकार विसर्जित हो जाता है, ‘इगोलेसनेस’ पैदा हो जाता है। एक क्षण को अंहकार नही रह जाता, एक क्षण को यह याद भी नही रह जाता कि में हूँ। क्या आपको पता है, धर्म के श्रेष्ठतम अनुभव में, में बिल्कुल मिट जाता है, अंहकार बिल्कुल शून्य हो जाता है। सेक्स के अनुभव में क्षण भर को अंहकार मिटता है। लगता है कि हूँ या नही। एक क्षण को विलीन हो जाता है। ‘मेरापन’ का भाव। दूसरी घटना घटती हैः एक क्षण के लिए समय मिट जाता है,’टाइमलेसनेस’ पैदा हो जाती है। जीसस ने कहा है समाधि के संबध में “देयर शैल बी टाइम नो लांगर”। समाधि का जो अनुभव है, वहां समय नही रह जाता है। वह कालातीत है। समय बिल्कुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्य-शुद्ध वर्तमान रह जाता है। सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है। न कोई अतीत रह जाता है न कोई भविष्य। समय मिट जाता है एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है। यह धार्मिक अनुभूति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। “इगोलेसनेस”, “टाइमलेसनेस”। दो तत्व है, जिसकी वजह से आदमी सेक्स की तरफ आतुर होता है और पागल होता है। वह आतुरता स्त्री के शरीर के प्रति नहीं पुरूष की, न पुरुष के शरीर के प्रति स्त्री की है। वह आतुरता शरीर के प्रति बिल्कुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और बात के लिए है। वह आतुरता है अहंकार शून्यता का अनुभव, समय शून्यता का अनुभव। लेकिन समय शून्य और अहंकार शून्य होने के लिए आतुरता क्यों है ? क्योंकि जैसे ही अहंकार मिटता है, आत्मा की झलक उपलब्ध होती है। जैसे ही समय मिटताहै, परमात्मा की झलक उपलब्ध होती है। एक क्षण की होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए मनुष्य कितनी ही ऊर्जा, कितनी हीं शक्ति खोने के लिए तैयार है। शक्ति खोने के कारण पछताता है बाद में कि शक्ति क्षीण हुई, शक्ति का अपव्यय हुआ। और उसे पता चलता है कि शक्ति जितनी क्षीण होती है मौत उतनी ही करीब आती है। मनुष्य को यह अनुभव में आ गया कि बहुत पहले कि सेक्स का अनुभव शक्ति को क्षीण करता है, जीवन ऊर्जा कम होती है और धीरे-धीरे मौत करीब आती है पछताता है आदमी लेकिन इतना पछताने के बाद फिर वही आतुरता। निष्चित ही आतुरता के पीछे कुछ और अर्थ है जो समझ लेना आवष्यक है। सेक्स की आतुरता में कोई रिलीजस अनुभव है कोई आत्मिक अनुभव है। उस अनुभव को यदि हम देख पांए तो हम सेक्स के ऊपर उठ सकते हैं। अगर उस अनुभव को हम न देख पांए तो हम सेक्स में ही जिएंगे और सेक्स में ही मरेंगे। उस अनुभव को यदि हम देख पाएं – अंधेरी रात है और अंधेरी रात में बिजनी चमकती है। बिजली की चमक अगर हमें दिखाई पड़ जाए और बिजली को अगर हम समझ लें तो अंधेरी रात को हम मिटा भी सकते हैं । लेकिन अगर हम यह समझ लें कि अंधेरी रात के कारण ही बिजली चमकती है तो फिर हम अंधेरी रात को और घना करने की कोषिष करेंगे, ताकि बिजली चमक सके। सेक्स की घटना में बिजली चमकती है। वह सेक्स से अतीत है, ट्रांसेड करती है, पार से आती है। उस पार के अनुभव को अगर हम पकड़ लें तो हम सेक्स से ऊपर उठ सकते हैं, अन्यथा नहीं। लेकिन जो लोग सेक्स के विरोध में खड़े हो जाते हैं वे अनुभव को समझ नहीं पाते कि वह अनुभव क्या है। वे कभी यह ठीक विष्लेषण नहीं कर पाते कि हमारी आतुरता किस चीज के लिए है। मैं आपसे कहना चाहूंगा कि संभोग का आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। और संभोग से आप उस दिन मुक्त होगें जिस दिन आपको समाधि की झलक बिना संभोग के मिलनी शुरु हो जाएगी। उसी दिन आप संभोग से मुक्त हो जांएगें। क्योंकि यदि एक आदमी हजार रुपए खोकर थोड़ा अनुभव पाता हो और कल हम उसे बता दें कि रुपए खोने की कोई जरूरत नहीं है, इस अनुभव की तो खदानें भरी पड़ी हैं। तुम चलों इस रास्ते से और अनुभव को पालो। तो फिर वह हजार रुपए खोकर उस अनुभव को खरीदने बाजार में नहीं जाएगा। सेक्स जिस अनुभूति को लाता है, अगर वह अनुभूति किन्हीं और मार्गों से उपलब्ध हो सके, तो आदमी का चित्त सेक्स की तरफ बढ़ना, अपने आप बंद हो जाता है। उसका चित्त एक नयी दिशा लेनी शुरु कर देता है। इसीलिए मैं कहता हूँ जगत में समाधि का पहला अनुभव मनुष्य को सेक्स के अनुभव से ही उपलब्ध हुआ है। लेकिन वह अनुभव बहुत महंगा अनुभव है। और दूसरा कारण है कि वह अनुभव कभी एक क्षण से ज्यादा गहरा नहीं हो सकता। एक क्षण को झलक मिलेगी और हम वापिस अपनी जगह पर लौट आते हैं। एक क्षण को किसी लोक में उठ जाते हैं किसी गहराई पर, किसी पीक अनुभव पर, किसी शिखर पर पहुँचना होता है। और हम पहुंच नहीं पाते और वापिस गिर जाते हैं। जैसे समुद्र की एक लहर आकाश में उठती है, उठ भी नहीं पाती पहुंच भी नहीं पाती, हवाओं में सिर उठा भी नहीं पाती और गिरना शुरु हो जाती है। ठीक हमारा सेक्स का अनुभव बार बार शक्ति को इकट्ठा करके हम उठने की चेष्ठा करते हैं। किसी गहरे जगत में, किसी क्षण को हम उठ भी नहीं पाते और सब लहरें बिखर जाती हैं हम वापिस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं और उतनी शक्ति और ऊर्जा को गंवा देते हैं। हम शक्ति को कैसे खो देते हैं मनुष्य की शक्ति को खोने का सबसे बड़ा केन्द्र सैक्स है। काम मनुष्य की शक्ति खोने का सबसे बड़ा केन्द्र है। जहां से वह शक्ति को खोता है। और जैसा मैने कल आपसे कहा कोई कारण है जिसकी वजह से वह शक्ति को खोता है। शक्ति को कोई भी खोना नहीं चाहता। कौन शक्ति को खोना चाहता है। लेकिन कुछ झलक है उपलब्धि की, उस झलक को पाने के लिए आदमी अपनी शक्ति को खोने को राजी हो जाता है। काम के क्षणों में कुछ अनुभव है, उस अनुभव के लिए आदमी अपनी शक्ति को खोने को तैयार हो जाता है। अगर वह अनुभव किसी और मार्ग से उपलब्ध हो सके तो मनुष्य सैक्स के माध्यम से शक्ति को खोने को कभी तैयार नहीं हो सकता। क्या और कोई द्वार है, उन अनुभव को पाने का? क्या और कोई मार्ग है उस अनुभूमि को पाने का – जहां हम अपने प्राणों की गहरी सी गहराई में उतर जाते हैं, जहां हम जीवन का ऊंचा से ऊंचा शिखर छूते हैं। जहां हम जीवन की शांति और आंनद की झलक पाते हैं। क्या कोई और मार्ग है? क्या कोई और मार्ग हैं अपने भीतर पहुँच जाने का। क्या स्वयं की शांति और आंनद के स्रोत तक पहुंच जाने की कोई और सीढ़ी है? अगर वह सीढ़ी हमें दिखाई दे जाए तो जीवन में एक क्रान्ति घटित हो जाती है। आदमी काम के प्रति विमुख और राम के प्रति सम्मुख हो जाता है। एक क्रांति घटित हो जाती है। एक नया द्वार खुल जाता है। मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक रिपीटीटिव सर्किल में, एक पुनरुक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट हो जाता है। लेकिन आज तक सैक्स के संबंध में जो भी धारणाएं रहीं है, वह मनुष्य को सेक्स के अतिरिक्त नया द्वार खोलने में समर्थ नही बना पायी हैं। बल्कि एक उल्टा ही उपद्रव हुआ। प्रकृति एक ही द्वार देती है, वह सेक्स का द्वार है। अब तक की शिक्षाओं ने वह द्वार भी बंद कर दिया और नया द्वार खोला नहीं। शक्ति भीतर ही भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले तो घूमती हुई शक्ति मनुष्य को विक्षिप्त कर देती है पागल कर देती है। और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से, जो सेक्स का सहज द्वार था निकलने की चेष्टा करता है, वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है। और अप्राकृतिक मार्गों से भी सैक्स की शक्ति बाहर बहने लगती है। यह दुर्घटना घटी है। यह मनुष्य जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है। नया द्वार खोला नहीं गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसीलिए मैं सैक्स के विरोध में, दुष्मनी के लिए, दमन के लिए अब तक जो शिक्षांए दी गयी हैं, उन सबके विरोध में खड़ा हूँ। उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटि बढ़ी है। कम नहीं हुई है, विकृत हुई है। क्या करें लेकिन? कोई और द्वार खोला जा सकता है? मैंने आपसे कल कहा, संभोग के क्षण की जो प्रतीति है, वह प्रतीति दो बातों की है। “टाइमलेसनेस” और “इगोलेसनेस” की। समय शून्य हो जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण भर की झलक और हम वापिस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। और एक बड़ी ऊर्जा एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह, इसमें हम खो देते हैं। फिर उस झलक की याद, स्मृति मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापिस उस अनुभव को पाना चाहते हैं। और वह झलक इतनी छोटी है एक झण में खो जाती है। ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या झलक थी हमने क्या जाना था? बस एक धुन एक अर्ज एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इस चेष्टा में संलग्न रहता है लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पा सकता है। वह झलक ध्यान के माध्यम से भी प्राप्त होती है। मनुष्य की चेतना तक पहुँचने के दो मार्ग हैं – काम और ध्यान। सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया है। जानवरों को भी दिया है, मनुष्यों को भी दिया है। और जब तक मनुष्य केवल प्रक़ृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है। मनुष्यता का प्रारंभ उस दिन से होता है जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वारा खेलने में समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं हैं। नाममात्र को मनुष्य हैं। उसके पहले हमारे जीवन को केन्द्र पशु का केन्द्र है, प्रकृति का केन्द्र है। जब तक हम उसके ऊपर नहीं उठ पाए, उसे ट्रासेंड नहीं कर पाए उसका अतिक्रमण नहीं कर पाए, तब तक हम पषुओं की भांति ही जीते हैं। सेक्स तो पशुओं में भी है, काम तो पशुओं में भी है, क्योंकि काम जीवन की ऊर्जा है। लेकिन सैक्सुअलटी, कामुकता सिर्फ मनुष्यों में है। कामुकता पशुओं में नहीं है। पशुओं की आंखों में देखें वहां कामुकता नहीं दिखाई देगी, आदमी की आंखों में देखें, वहां एक कामुकता का रस झलकता हुआ दिखाई देता है। इसलिए पशु आज भी एक तरह से सुंदर हैं। लेकिन दमन करने वाले पागलों की कोई सीमा नहीं है कि कहां तक बढ़ जाएंगें। कभी आपने खयाल किया है पशु अपनी नग्नता में भी सुंदर हैं और अदभुत हैं। उसकी नग्नता में भी वह निर्दोष हैं, सरल व सीधा है। कभी आपको पशु नग्न है यह खयाल शायद ही आया हो। जब तक कि आपके भीतर बहुत नंगापन न छिपा हो तब तक आपको पशु नंगा दिखाई नहीं दे सकता। जरूरत तो यह है कि जैसे महावीर जैसा व्यक्ति नग्न खड़ा हो गया। लोग कहते हैं कि उन्होंने कपड़ों का त्याग कर दिया पर मैं कहता हूँ न कपड़े छोड़े न कपड़ों का त्याग किया। चित्त इतना निर्दोष हो गया, इतना इनोसेंस हो गया जैसे एक छोटे बच्चे का तो वे नग्न खड़े हो गए क्योंकि जब ढांकने को कुछ न रहे तो व्यक्ति नग्न हो जाता है। चाहिए तो एक एसी पृथ्वी कि आदमी भी इतना सरल हो कि नग्न होने में उसे कोई पष्चाताप कोई पीड़ा नहीं होगी। नग्न होने में उसे कोई अपराध न होगा। आज तो हम कपड़े पहनकर भी अपराधी होते हैं। हम कपड़े पहनकर भी नंगे हैं। और ऐसे लोग भी रहे हैं जो नग्न होकर भी नग्न नहीं थे। मैंने कल कहा था कि मुझसे बड़ा शत्रु सैक्स का ढूंढना कठिन है। लेकिन मेरी शत्रुता का यह अर्थ नहीं है कि मैं सैक्स को गाली दूं। और निंदा करूं। मैं आपको कहूं कि वह सैक्स को रूपांतरित करने के सबंध में दशा सूचन करूं। मैं आपको कहूं कि वह कैसे रूपातंरित हो सकता है। मैं कोयले का दुष्मन हूँ क्योंकि मैं कोयले को हीरा बनाना चाहता हूँ। वह कैसे रूपांतरित होगा? उसकी क्या विधि होगी? मैंने आपसे कहा, एक द्वार खोलना जरूरी है। नया द्वार। बच्चे जैसे ही पैदा होते हैं वैसे ही उनके अंदर सेक्स का आगमन नहीं हो जाता हैं। अभी देर है। अभी शरीर शक्ति इकट्ठी करेगा। अभी शरीर के अणु मजबूत होंगे, अभी उस दिन की प्रतीक्षा करनी होगी जब शरीर पूरा तैयार हो जाएगा। ऊर्जा इकट्ठी होगी और द्वार जो बंद रहा है १४ वर्षों तक वह खुल जाएगा। ऊर्जा इकट्ठी होगी और द्वार जो बंद रहा है १४ वर्षों तक, वह खुल जाएगा ऊर्जा के धक्के से, और सेक्स की दुनिया शुरु होगी। एक बार द्वार खुल जाने के बाद नया द्वार खोलना कठिन हो जाता है। क्योंकि समस्त ऊर्जाओं का यह नियम है समस्त शक्तियों का वह एक दफा अपना मार्ग खोज लेती हैं तो वह उसी मार्ग से बहना पंसद करती हैं । गंगा बह रही है सागर की तरफ उसने एक बार रास्ता खोज लिया, अब वह उसी रास्ते से बही चली जाती है, बही चली जाती है। रोज रोज नया पानी आता, उसी रास्ते से बहता हुआ चला जाता है। गंगा रोज रास्ता नहीं खोजती। जीवन की ऊर्जा भी एक रास्ता खोज लेती है। फिर वह उसी मार्ग से बहती चली जाती है। अगर जमीन को कामुकता से मुक्त करना है तो सेक्स का रास्ता खुलने से पहले नया रास्ता, ध्यान का रास्ता खोल देना जरूरी है। एक एक छोटे बच्चे को ध्यान की अनिवार्य शिक्षा और दीक्षा मिलनी चाहिए। पर हम उसे सेक्स के विरोध की दीक्षा देते हैं, जो कि अंत्यंत मूर्खतापूर्ण है। सेक्स के विरोध की दीक्षा नहीं देनी है। शिक्षा देनी है ध्यान की वह ध्यान के लिए कैसे उपलब्ध हो। और बच्चे ध्यान को जल्दी उपलब्ध हो सकते है। क्योंकि अभी उनकी ऊर्जा का कोई भी द्वार खुला नहीं है। अभी द्वार बंद है, अभी ऊर्जा संरक्षित है, अभी नहीं भी नए द्वार पर धक्के दिए जा सकते हैं और नया द्वार खोला जा सकता है। फिर ये ही बूढ़े हो जाएगें और इन्हें ध्यान में पहुंचना अत्यंत कठिन हो जाएगा। ऐसे ही, जैस एक नया पौधा पैदा होता है, उसकी शांखाए कहीं भी झुक जाती हैं कहीं भी झुकाई जा सकती है। फिर वही बूढ़ा वृक्ष हो जाता है। फिर हम उनकी शाखाओं को झुकाने की कोशिश करते फिर शाखांए टूट जाती हैं झुकती नहीं। बूढ़े लोग ध्यान की चेष्टा करते हैं दुनिया में, जो बिल्कुल गलत है। ध्यान की सारी कोशिश बच्चों पर की जानी चाहिए। लेकिन मरने के करीब पहुचंकर आदमी ध्यान में उत्सुक होता है। वह पूछता है ध्यान क्या, योग क्या, हम कैसे शांत हो जांए। जब जीवन की सारी ऊर्जा खो गयी, जब जीवन के सब रास्ते सख्त और मजबूत हो गए , जब झुकना और बदलना मुष्किल हो गया, जब वह पूछता है कि अब मैं कैसे बदल जांऊ। एक पैर आदमी कब्र में डाल लेता है और दूसरा पैर बाहर रख कर पूछता है, ध्यान का कोई रास्ता है? अजीब सी बात है। बिल्कुल पागलपन की बात है। यह पृथ्वी कभी भी शांत और ध्यानस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक ध्यान का संबंध पहले दिन के पैदा हुए बच्चे से हम न जोड़ेंगे। अंतिम दिन के वृृद्ध से नहीं जोड़ा जा सकता। व्यर्थ ही हमें श्रम उठाना पड़ता है बाद के दिनों में शांत होने के लिए, जो कि पहले एकदम हो सकता था। छोटे बच्चे को ध्यान की दीक्षा, काम के रूपांन्तरण का पहला चरण है – शांत होने के दीक्षा, निर्विचार होने की दीक्षा, मौन होने की दीक्षा। बच्चे ऐसे भी मौन हैं, बच्चे ऐसे भी शांत है। अगर उन्हें थोड़ी सी दिशा दी जाए, और उन्हें मौन और शांत होने के लिए घड़ी भर की भी शिक्षा दी जाए, तो जब वे १४ व के होने के करीब जाएंगे, जब काम जगेगा तब तक उनका एक द्वार खुल चुका होगा । शक्ति इकट्ठी होगी और जो द्वार खुला है उसी के द्वारा बहनी शुरु हो जाएगी । उन्हें शांति का आनंद का, काल हीनता का, निरहंकार भाव का अनुभव सैक्स के बहुत अनुभव के पहले उपलब्ध हो जाएगा । वही उनकी ऊर्जा को गलत मार्गों से रोकेगा और ठीक मार्गों पर ले आएगा। लेकिन हम छोटे छोटे बच्चों को ध्यान तो सिखाते नहीं, काम का विरोध सिखाते हैं। काम पाप है, गंदगी है, कुरूपता है, बुराई है, नरक है, यह सब हम बताते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें ( बच्चों को ) ध्यान की षिक्षा मिलनी चाहिए। कैसे मौन हों, कैसे शांत हों, कैसे निर्विचार हों। और बच्चे तत्क्षण निर्विचार हो सकते हैं, मौन हो सकते हैं, शांत हो सकते हैं – चौबीस घण्टों में एक घण्टा अगर बच्चों को घर में मौन में ले जाने की व्यवस्था हो निष्चित ही वे मौन में तब जा सकेंगे, जब आप भी उनके साथ मौन बैठ सकें। हर घर में एक घंटे का मौन व ध्यान अनिवार्य होना चाहिए। एक दिन खाना न मिले तो चल सकता है लेकिन यदि एक घंटे के ध्यान के बिना घर नहीं चल सकता। वह घर झूठा है। उस घर को परिवार कहना गलत है, जिस परिवार में एक घंटे के मौन की दीक्षा नहीं है। एक घंटें का मौन चौदह वर्ष में उस दरवाजे को तोड़ देगा। रोज धक्के मारेगा। उस दरवाजे को को तोड़ देगा ध्यान के माध्यम से। जिस ध्यान से मनुष्य को समयहीन, अहंकार शून्यता का अनुभव होता है जहां से आत्मा की झलक मिलती है वह झलक सेक्स के अनुभव से पहले मिल जानी आवष्यक है। अगर वह झलक पहले मिल जाए तो सेक्स के प्रति अतिशय दौड़ समाप्त हो जाएगी।
ओशो
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