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संपादकीय

मुफलिस कहो, फकीर कहो, आगरे का है शायर कहो,

habib
दो फकीर ‘शहर आशोब'(नगर की दुर्दशा का वर्णन करने वाली कविता) गाते हुए हाल में प्रवेश करते हैं और स्‍टेज पर जाते हैं, कफनी पहने हुए एक हाथ में कश्‍कोल (भिक्षा-पात्र) और तस्‍बीह (जपने की माला) और दूसरे में एक डंडा और लोहे के कड़े लिए हुए। परदे के सामने खड़े होकर जज्‍म सुनाते हैं और ताल पर कड़े बजाते जाते हैं।

फकीर : है अब तो कुछ सुखन (वाणी, बोलना, कविता) का मेरे इख्तियार (अधिकार, वश) बंदे रहती है तब्‍अ (तबियत, स्‍वभाव) सोच में लैलो-निहार (रात-दिन) बंद दरिया सुखन की फिक्र (चिंता) का है मौजदार (रात-दिन) बंद हो किस तरह न मुँह में जुबाँ बार-बार बंद अब आगरे की खल्‍क (जन-साधारण) का हो रोजगार बंद जितने हैं आज आगरे में कारखानाजात सब पर पड़ी हैं आन के रोजी की मुश्किलात किस-किसके दुख को रोइये आथ्‍र किसकी कहिये बात रोजी के अब दरख्‍त का हिलता नहीं है पात ऐसी हवा कुछ आके हुई एक बार बंद सर्राफ, बनिये, जौहरी और सेठ-साहूकार देते थे सबको नक्‍द, सो खाते हैं अब उधार बाजार में उड़े है पड़ी खाक बेशुमार बैठे हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार जैसे कि चोर बैठे हों कैदी कतारबंद बेवारिसी (बेबसी, लाचारी) से आगरा ऐसा हुआ तबाह फुटी हवेलियाँ हैं तो टूटी शहरपनाह होता है बागबाँ से हर इक बाग का निबाह वह बाग किस तरह न लुटे और न उजड़े, आह जिसका न बागबाँ हो, न माली, न खारबंद (काँटेदार झाड़ियाँ की बाड़) आशिक कहो, असीर (फुनगी, सिरा) कहो, आगरे का है मुल्‍ला कहो, दबीर (प्रकट) कहो, आगरे का है मुफलिस कहो, फकीर कहो, आगरे का है शायर कहो, ‘नजीर’ कहो, आगरे का है इस वास्‍ते ये उसने लिखे पाँच-चार बंद (मजाक)

जन्म : 1 सितंबर 1923, रायपुर (छत्तीसगढ़)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : नाटक, कविता, अभिनय, निर्देशन
मुख्य कृतियाँ
नाटक : शतरंज के मोहरे, मिट्टी की गाड़ी, मिर्जा शोहरत बेग, लाला शोहरत राय, हिरमा की अमर कहानी, चरनदास चोर, आगरा बाजार, बहादुर कलारिन, शाजापुर की शांतिबाई, देख रहे हैं नैन, मुद्राराक्षस, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना, सड़क

सम्मान
पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, शिखर सम्मान (मध्य प्रदेश द्वारा), नांदिकर पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप तथा अन्य

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