आगरालीक्स…शॉकिंग…5 हजार में बिकने वाली दवा 500 रुपये में भी बिक रही है. एक ही दवा के दाम में 10 गुना का अंतर…एंटीबायोटिक में 5 से 10 गुना तक प्रॉफिट. एनपीपीए में दर्ज कराईं आपत्तियां….
एक ही कंपनी और एक ही दवा लेकिन एक जगह 5000 रुपये में मिल रही है तो दूसरी जगह वही 500 रुपये में. एंटीबायोटिक में रिटेलर 5 से 10 गुना तक प्रॉफिट ले रहे हैं. इसको लेकर आगरा के चिकित्सक डॉ. संजय कुलश्रेष्ठ द्वारा दाखिल की गई PIL में कोर्ट के आदेश पर एनपीपीए में आपत्तियां दर्ज कराई गई हैं.
डा संजय कुलश्रेष्ठ ने ड्रग प्राइसिंग में व्याप्त कुछ अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस को लेकर मिनिस्ट्री ऑफ़ केमिकल फ़र्टिलाइज़र के नेशनल ड्रग प्राइसिंग कण्ट्रोल अथॉरिटी के अवधेश कुमार चौधरी, सीनियर इकोनॉमिक्स एडवाइजर के साथ NPPA (नेशनल फार्मा प्राइसिंग अथॉरिटी के मेंबर्स श्री महावीर सैनी, अपर्णा लाल व दीपक कुमार के साथ मंत्रालय में मीटिंग में भाग लिया। ये मीटिंग दिल्ली हाईकोर्ट में डॉ संजय कुलश्रेष्ठ कि दायर PIL के सन्दर्भ में उठाये जनरिक व ब्रांडेड दवा की दामों व क्वालिटी के मुद्दों पर चर्चा के लिए हाई कोर्ट के आदेश पर मिनिस्ट्री द्वारा अरेंज की गई थी।
कोर्ट ने ड्रग प्राइसिंग कण्ट्रोल के सीनियर अधिकारियों को उस PIL में उठाये मुद्दों को समझने व उनपे उचित एक्शन लेने को आदेश दिया था। डॉ कुलश्रेष्ठ ने तीन चार मुद्दों प्राइस फिक्सिंग कमेटी के सामने रखा: उन्होंने कहा कि कुछ दवाई, खासतौर से एंटीबायोटिक में देखा गया है कि रिटेलर लोग दवा कि मैन्युफैक्चरिंग कॉस्ट से 5 से 10 गुना तक प्रॉफिट ले रहे हैं जो किसी भी स्वस्थ बिज़नेस में सही नहीं है! और शेडूल ड्रग में तो ये ड्रग प्राइसिंग कण्ट्रोल आर्डर (DPCO 2013) कानून का सरासर उल्लंघन है जहाँ रिटेलर को अधिकतम 16% से ज्यादा मुनाफे कि इज़ाज़त नहीं है जिसका मतलब है कि रिटेलर यदि अपना पूरा मुनाफा छोड़ दे तो भी 16% से कम का डिस्काउंट नहीं दे सकता तो फिर ये कैसे संभव है कि वो 5000 रु MRP प्रिंट वाली दवाई दस गुणा कम या केवल 500 में दे देता है, ऐसे कई दवा के उदाहरण डॉ कुलश्रेष्ठ ने कमेटी के सामने लिखित व मौखिक रखें।
दूसरा मुद्दा ये उठाया कि आज एक ही कंपनी एक ही दवा की एक मात्रा या क्वांटिटी को दो अलग अलग ब्रांड से दो अलग दामों में बेच रही है मसलन एक केमिकल फार्मूला एक नाम से 600 एमआरपी में मिल रही है और वही कंपाउंड वही मात्रा में वही कंपनी 3000 हज़ार एमआरपी में भी बना रही है। जिसका प्रथम दृष्टि यही उद्देश्य लगता है छोटे अस्पताल या ओपन मार्किट केमिस्ट को सस्ता वाला ब्रांड और बड़े या कॉर्पोरेट अस्पताल के मरीजों को महगा वाला सप्लाई किया जाये। ये घोर अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस है और मरीजों का अनुचित दोहन है। दो कंपनी एक दवा दो अलग नाम से दो अलग रेट में बनायें तो वो दलील दे सकतीं है कि उनकी मैन्युफैक्चरिंग सुपीरियर है, पर एक कंपनी कैसे कह सकती है कि वो एक दवा के सस्ते व मँहगे क्वालिटी के ब्रांड, कम या अच्छे स्टैण्डर्ड के आधार पे बना सकती है।
खाने पीने कीवस्तु या गेंहू चावल को यदि कोई दुकानदार दो तीन क्वालिटी में कम ज्यादा दाम में एक बारको बेच सकता है। पर दवा को क्वालिटी के आधार पे A या B स्टैण्डर्ड कि बता के नहीं बेच सकते क्यूंकि ड्रग को बेसिक क्वालिटी टेस्ट पास करके एक ही क़्वालिटी का लाइसेंस मिलता है। तीसरा मुद्दा उन्होंने TPA या हेल्थ इन्सुरेंस वाले मरीजों में इस्तेमाल होने वाले दवाइयों का उठाया। जिसमें देखा जा रहा है की इन्सुरेंस वाले मरीजों को हॉस्पिटल में एक अन्य फार्मेसी की द्वारा दवा दिलवाई जाती है जो न केवल स्थापित या अच्छी कंपनी की दवाओं से कम स्टैण्डर्ड की होती है बल्कि दाम में भी उनसे ज्यादा होती हैं।