Agra News: Doctors expressed pain about daughters on Navratri…#agranews
आगरालीक्स…ओ री चिरैया, नन्हीं सी चिड़िया, अंगना में फिर आ जा रे…। हमें देवी नहीं बनना, अच्छा बर्ताव तो कर सकते हो, नवरात्र में कन्या ढूंढनी पड़ती हैं। आखिर क्यों?
ओ री चिरैया, नन्हीं सी चिड़िया, अंगना में फिर आ जा रे…। गीतकार स्वानंद किरकिरे का यह गीत झकझोरता है। बेटियों के प्रति हमारे बर्ताव और उनकी कमी का अहसास कराता है। आज नवरात्र का पहला दिन है। देवी मां की पूजा शुरू हो गई है, लेकिन नवमी के दिन बेटियां ढूंढनी पड़ती हैं। आखिर क्यों? आगरा में डाॅक्टरों ने दर्द बयां किया है, कहा है कि बेटियां देवी नहीं बनना चाहतीं, लेकिन उन्हें इंसानों जैसा व्यवहार जरूर चाहिए।
फेडरेशन आफ आब्सटेट्रिकल एंड गायनेकोलाॅजिकल सोसायटी आफ इंडिया (फाॅग्सी) यंग टेलेंट कमेटी की चेयरपर्सन और मल्होत्रा नर्सिंग एंड मैटरनिटी होम कीं डाॅ. नीहारिका मल्होत्रा कहती हैं कि नवरात्र में हर घर में माता-रानी की पूजा होती है, लेकिन बेटी नहीं चाहिए, क्यों। एक डाॅक्टर के रूप में मुझे गहरा दर्द होता है जब मैं एक महिला को देखती हूं, जिसकी तीन बेटियां हैं लेकिन बेटे की लालसा में उसे चौथी बार गर्भधारण के लिए मजबूर किया जा रहा है। एक हालिया सर्वेक्षण का हवाला देते हुए डाॅ. नीहारिका कहती हैं कि आज भी 71 फीसद लोग नहीं चाहते कि उनके घर में बेटी पैदा हो। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है, उस दौर में जब बेटियां ही देश का गौरव बन गई हैं। डाॅ. नीहारिका बताती हैं कि वे अपनी स्मृति संस्था के तहत स्कूलों में जाकर बच्चियों की शिक्षा के प्रति काम कर रही हैं, लेकिन एक अकेले के करने से लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है, जब तक हर ओर से आवाज नहीं आती।
देवी मां पर रखते हैं नाम
आगरा ऑब्स एंड गायनी सोसायटी की सचिव डॉ सविता त्यागी ने बताया कि पहले की तुलना में अब काफी अंतर आया है। नवरात्र में बेटी पैदा होने पर ऐसे लोग जिनके पास पहले से बेटियां हों वे भी उन्हें देवी का रूप मानते हैं और खुशी से स्वागत करते हैं। वहीं तमाम लोग अपनी बेटियों का नाम भी देवी मां के नाम पर ही रखते हैं।
मान्यता ही नही मन से भी स्वीकार करने लगे
एओजीएस के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. अनुपम गुप्ता बताते हैं कि हालांकि अब पहले की तुलना में काफी अंतर आया है। नवरात्र में बेटी पैदा होती है तो लोगों के चेहरे खिल उठते हैं। मान्यता ही नहीं मन से भी लोग बेटियों को स्वीकार करने लगे हैं। खुशी की बात है कि पिछले कुछ वर्षों में बेटों की तुलना में बेटियों का अनुपात बढ़ा है, लेकिन यह अनुपात बराबर होने तक कोशिश नहीं छोड़ी जा सकती।
दशकों तक समझाते रहे, रंग ला रही मुहिम पर अब भी कसर
फाॅग्सी के पूर्व अध्यक्ष व वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डाॅ. नरेंद्र मल्होत्रा ने बताया कि आज बेटियों का प्रतिशत अगर बढ़ा है तो इसके पीछे दशकों की मेहनत है। आज से 25 वर्ष पहले ही हालातों को भांपकर उन्होंने अपनी धर्मपत्नी डाॅ. जयदीप के साथ मिलकर अस्पताल में आने वाले दंपतियों को यह समझाना शुरू कर दिया था कि बेटियों को बचाना और पढ़ाना कितना जरूरी है। ऐसे ही प्रयास देश भर में डाॅक्टरों की ओर से हुए। वर्ष 2008 में जब वे फाॅग्सी के अध्यक्ष बने तो फाॅग्सी के स्लोगन के रूप में बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा बुलंद किया। अस्पताल में बेटियों के पैदा होने पर सरकारी योजना में उनके खाते खुलवाना और पिछले 10 सालों से एक जनवरी को बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की रैली के साथ नए साल का आगाज करना भी इसी मुहिम का एक छोटा सा हिस्सा हैं।
पिछले 10 सालों में आया फर्क
सरकारी आंकड़ों की मानें तो पिछले 10 सालों में काफी बदलाव आया है। लड़कों के सापेक्ष कम होने वाली लड़कियों का अनुपात बढ़ा है। वर्ष 2011 में 0 से 06 वर्ष के आयु वर्ग में जहां 1000 लड़कों के सापेक्ष 861 लड़कियां थीं वहीं वर्ष 2021 तक यह संख्या प्रति हजार लड़कों पर 928 पहुंच गई है। यानि पिछले 10 सालों में प्रति हजार लड़कों के अनुपात में 67 लड़कियां बढ़ गई हैं। यह लक्ष्य बराबरी पर आकर ही पूरा होगा।