आगरालीक्स…कभी काॅमिक्स मनोरंजन के लिए साथ निभाती थीं लेकिन अब यह दुनिया वीरान है और वेब सीरीज की गुलजार, आज के युवा ओटीटी पर समय बिता रहे हैं, 20 साल का अंतर और दो अलग पीढ़ियों के तर्क
आपको 80 और 90 के दशक का वो दौर याद होगा जब गली में किसी दुकान पर काॅमिक्स मिला करती थीं। अकेला दूरदर्शन ही मनोरंजन के लिए नाकाफी साबित होता था। यह वह दौर था जब न केवल प्रसारण का समय कम था बल्कि लाइट जाने की समस्या बहुत थी। ऐसे में काॅमिक्स साथ निभाती थीं। लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात है। आज के किशोर और युवा अपना अधिकांश समय ओटीटी पर बिता रहे हैं। वेब सीरीज की छोटी-छोटी कहानियां दिल जीत रही हैं।

चाचा चैधरी का तेज दिमाग हो या पिंकी के नटखट किस्से, साबू की शक्ति और बांकेलाल की कर भला हो भला वाली किस्मत ऐसी जोरदार कहानियां कि घंटों बच्चे काॅमिक्स पढ़ते रहते थे। दयालबाग निवासी विनायक अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं उनके घर में पढ़ाई को लेकर अधिक सख्ती बरती जाती थी, इसलिए वे जब भी अपनी नानी के यहां जाते थे काॅमिक्स के साथ वक्त बिताते थे। बल्केश्वर निवासी गौरव अपना बचपन याद करते हैं। वे कहते हैं कि सुपरकमांडो, धु्रव, बांकेलाल, नागराज, डोका, चंपक, चाचा चैधरी, बिल्लू, पिंकी, बालहंस, नंदन, लोटपोट उनकी फेवरेट काॅमिक्स हुआ करती थीं। अब वे अपने घर में देखते हैं तो इस तरह के मनोरंजन को मिस करते हैं। नई पीढ़ी ज्यादातर समय मोबाइल पर बिताती है। कंप्यूटर और टीवी पर भी वे अलग तरह के टीवी शो देख रहे हैं, जो गौरव की समझ से बाहर हैं।
सदर निवासी धर्मेंद्र ट्रैवल इंडस्ट्री में हैं। वे कहते हैं कि आलम यह था कि काॅमिक्स को खत्म करने में दो घंटे भी पूरे नहीं लगते थे। पास में किसी दुकान पर किराए पर मिल जाती थी फिर एक रूपये का सिक्का लेकर पहुंच जाते थे। सपने में भी नागराज और साबू आया करते थे
किशन नगर, बल्केश्वर निवासी मनोज तोमर बताते हैं कि उनके पड़ौस में कृष्ण अग्रवाल बुक डिपो के नाम से दुकान हुआ करती थी। घंटे के हिसाब से काॅमिक्स मिल जाया करती थीं। यह 25 पैसे प्रति घंटे के हिसाब से मिलती थीं, लेकिन दुकान वाला पांच रूपये जमा करता था। काॅमिक्स वापसी पर बची हुई रकम भी वापस मिल जाती थी। मनोज कहते हैं कि अब तो यह काॅमिक्स कहीं नजर ही नहीं आतीं। बच्चे भी ज्यादातर मोबाइल फोन पर बिजी दिखते हैं।
न जाने कितनी ही चीजें धीरे-धीरे हमारी जिंदगी से निकलती जाएंगी फिर भी शायद जो बचपन का एक कोना ता है सभी के दिल में जीवन पर्यंत हरा भरा रहेगा। मन के किसी कोने से यादें शरारती बच्चों की तरह शैतानी करती रहेंगी।
इधर युवाओं की बात करें तो एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले अंकित को मोबाइल पर वेब सीरीज देखना पसंद है। वे कहते हैं कि वेब सीरीज में समय की कोई पाबंदी नहीं होती। इनकी कहानियां छोटी होती हैं और मोबाइल फोन हाथ में लेकर सस्ते इंटरनेट प्लान की वजह से कहीं भी देखी जा सकती हैं। एक हाॅस्पिटल में काम करने वाले तुषार कहते हैं कि वेब सीरीज बाॅलीवुड मूवीज से थोड़ा अलग हैं। वे सिनेमाहाल में जाकर मूवी देखने की जगह वेब सीरीज देखना पसंद करते हैं।