आगरालीक्स…मखमली कंबलों ने छीनी रजाई की गर्माहट, एक जमाना था जब बुनकरों के यहां भीड़ लग जाती थी, अब कारोबार ठप
आगरा में आधुनिकीकरण के अपने कई फायदे तो कई नुकसान भी हैं। एक जमाना था जब दिसंबर की सर्दी से बचने के लिए बुनकरों के यहां भीड़ लग जाती थी। मगर आज रजाई के खरीददार दूर—दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं।
दिसंबर के महीने में अब सर्दी अपने शबाब पर है। रात को सोने के बाद सुबह के वक्त भी लोगों का मखमली कंबलों से बाहर आने का मन नहीं कर रहा है। कभी यह गर्माहट रजाई में हुआ करती थी लेकिन आज रजाई से उसकी गर्माहट मानो छिन गई है। इससे रजाई का रोजगार करने वाले बुनकर भी बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। एक समय हुआ करता था जब लोग सर्दी का मौसम आते ही रजाई भरवाने के लिए टूट पड़ते थे, लेकिन अब रजाई भरने वाले बुनकर पाई-पाई के मोहताज होते नजर आ रहे हैं।
बल्केश्वर में हरी की चक्की पर रजाईयां बुनी जाती थीं मगर पिछले कुछ सालों से यहां काम बंद हो चुका है। लोग रजाइयों की जगह कंबल को तवज्जो देने लगे हैं। हालांकि रजाई कंबल की एवज में ज्यादा किफायती है, इसके बावजूद रजाइयों की बिक्री धीरे-धीरे काफी कम होने लगी है।
घटिया आजम खां में आज भी कुछ बुनकर बचे हैं। यहां नई रजाई भी मिल रही हैं, लेकिन खरीददार नजर नहीं आ रहे हैं। कुछ दुकानदारों ने बताया कि लोग अब हाथों से बने रजाई की जगह रेडिमेड इंपोर्टेड कंबल पसंद करने लगे हैं। इस कारण रजाई बनाने वाले परिवारों का धंधा चौपट होने लगा है। लोकल स्तर पर रुई से तैयार होने वाली रजाई की डिमांड धीरे-धीरे कम होने लगी है।
सुभाष बाजार, मोती कटरा, दरेसी, रावतपाड़ समेत पुराने बाजारों में कहीं—कहीं बुनकर की एकाध दुकान नजर आती है मगर यहां भी दुकानदार रजाईयों के 10 या 12 पीस ही तैयार करके बैठे हैं। पिछले कुछ वर्षों का रिकॉर्ड देखकर उन्हें इस साल भी कोई खास उम्मीद नहीं है। सुल्तानगंज की पुलिया पर एक रजाई बनाई जाती हैं। दुकानदार ने कहा कि 500 से लेकर 1500 रूपये तक की रजाई है। वजन और माल के हिसाब से रेट तैयार किया जाता है लेकिन बिक नहीं रही हैं।