वर्ष 1633 में 26 मई को मुमताज का दूसरा उर्स मनाया गया। तब तक यमुना किनारा पर मकबरे का निचला तल बनकर तैयार हो चुका था, इसीलिए उसके ऊपर शाही टेंट लगाए गए। इस उर्स में भाग लेने के लिए शहजादी जहांआरा यमुना के रास्ते ताज तक पहुंची थी। 6 फरवरी, 1643 को जब मुमताज का 12वां उर्स मना, तब मुख्य मकबरा बनकर तैयार हो चुका था।
मुमताज की मौत बुरहानपुर में 17 जून, 1631 (हिजरी वर्ष के अनुसार 17 जी-कादा, 1040) को हुई थी। जिसके बाद उसे जैनाबाद के बाग में दफन किया गया। करीब छह माह बाद उसके ताबूत को लेकर दिसंबर, 1631 में शहजादा शाहशुजा आगरा की ओर चला। रास्ते में गरीबों को खाने का सामान और सिक्के बांटे गए। जनवरी, 1632 में उसका शव आगरा पहुंचा। यहां उसे ताज के गार्डन (जिलाऊखाना) में दूसरी बार दफन कर दिया गया। यह जगह ताज में आज भी मस्जिद के पास है। छह माह बाद वर्तमान जगह पर मुमताज का तीसरा दफन किया गया। असरफ अहमद ने अपनी किताब ‘ताजमहल या ममी महलÓ में भी मुमताज के तीन दफनों का वर्णन किया है
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