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Cabinet okays trial of juveniles at 16 as adults

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केंद्रीय मंत्रिमंडल ने किशोर न्याय कानून (जेजे एक्ट) में प्रस्तावित संशोधन अधिनियम को बुधवार को मंजूरी दे दी। इस पर संसद की मुहर लगने के बाद जघन्य अपराधों में लिप्त 16 साल से 18 साल के किशोरों के साथ वयस्कों के कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जा सकेगा।

उल्लेखनीय है कि निर्भया कांड में दोषी नाबालिग के छूटने के बाद किशोर की कानूनी परिभाषा में बदलाव का मुद्दा उठा था। सुप्रीमकोर्ट ने भी 6 अप्रैल को इस कानून को बदलने का केंद्र को दिशा-निर्देश देते हुए एक माह की मोहलत दी थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक के बाद संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बताया कि महिला और बाल विकास मंत्रालय के जेजे एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव को यहां मंजूरी दे दी गई है। इस संशोधन अधिनियम के जरिए 16 से 18 की उम्र के बीच के किशोरों के लिए जघन्य अपराधों के मामले में नए सिरे से न्यायिक प्रक्रिया तय करने का प्रस्ताव किया गया है। इसके मुताबिक ऐसे मामलों में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को यह तय करने का अधिकार होगा कि सुनवाई सामान्य अदालतों में हो या फिर जुवेनाइल जस्टिस कोर्ट में।

नए बिल में दोनों पक्षों का ध्यान :

सरकार की ओर से जारी बयान में दावा किया गया है कि नए विधेयक में इस संबंध में दोनों पक्षों के तर्को का ध्यान रखा गया है। एक तरफ वे लोग हैं, जो चाहते हैं कि किशोरों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो, जबकि दूसरी तरफ बड़ी संख्या में लोग बड़ी उम्र के किशोरों के गंभीर अपराधों में शामिल होने पर चिंतित हैं। नए बिल में विभिन्न अपराधों को विस्तार से छोटे, गंभीर और जघन्य की श्रेणियों में बांटा गया है।

मनोवैज्ञानिक और समाजविद तय करेंगे अपराधी की मनोवृत्ति :

संशोधन बिल में प्रस्ताव किया गया है कि जघन्य अपराधों के मामले में किशोर के बारे में फैसला लेने वाले बोर्ड में मनोवैज्ञानिक और समाजविद भी होंगे। बोर्ड जब फैसला करेगा कि आरोपी ने अपराध किशोर के तौर पर किया है या फिर वयस्क के तौर पर उसमें इनकी अहम भूमिका होगी। गंभीर अपराधों में जिस तरह नाबालिग शामिल हो रहे हैं, उनको ले कर इसी महीने की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सलाह दी थी कि वह इस मामले पर गंभीरता से विचार करे। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा था कि इन कानूनों की समीक्षा इसलिए जरूरी है क्योंकि समाज को यह संदेश जाना चाहिए कि पीडि़त की जिंदगी भी कानून के लिए उतनी ही अधिक महत्वपूर्ण है। सर्वोच्च अदालत ने इस मामले पर सरकार को एक मई तक अपना पक्ष रखने को कहा था।

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